Chhori 2 Movie Review: वही गन्ने का खेत, वही भूत – अब डर नहीं, ऊब होती है!

Naman Jha
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Chhori 2 Movie Review: जब किसी फिल्म का पहला भाग सफल हो जाए तो स्वाभाविक है कि निर्माता उसका सीक्वल बनाना चाहेंगे, पर सीक्वल बनाना और उसी फिल्म को दोबारा बनाना – दोनों में फर्क होता है। विशाल फुरिया की ‘छोरी 2’ उस दूसरे मामले का उत्तम उदाहरण है – एक ऐसी फिल्म जिसे देखकर आप खुद से पूछेंगे, “ये मैंने पहले कहीं देखा है… ओह हाँ, ‘छोरी’ में!”

Chhori 2 Movie Review: कहानी का भटकाव, डर से ज्यादा कन्फ्यूजन

‘छोरी 2’ की कहानी वहीं से शुरू होती है जहाँ पहली फिल्म खत्म हुई थी – सात साल बाद। साक्षी (नुसरत भरुचा) अब अपनी बेटी ईशानी के साथ किसी नए शहर में बस गई है, लेकिन भूत-पिशाच का जुड़ाव उसके पीछे-पीछे चलता है। बेटी को एक अजीब सी बीमारी है और जल्द ही पता चलता है कि यह बीमारी नहीं, बल्कि एक श्राप है – वही पुराना भूतिया गाँव, वही पितृसत्तात्मक परंपराएं, और वही सवाल – बेटी हुई तो मार दो?

पर कहानी यहीं नहीं रुकती। ईशानी का अपहरण होता है, और साक्षी दोबारा उसी प्रेतबाधित गाँव पहुँच जाती है। यहाँ एंट्री होती है सोहा अली खान की, जो ‘दासी माँ’ बनी हैं – एक रहस्यमयी, पितृसत्ता की सबसे बड़ी सेविका, जो भूत होकर भी पुरानी परंपराओं की रखवाली कर रही हैं। साक्षी की जंग अब सिर्फ आत्माओं से नहीं, बल्कि उन रिवाज़ों से है जो बेटी को “बलि” बनाने में विश्वास रखते हैं।

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अभिनय: कलाकारों की बर्बादी

नुसरत भरुचा ने पिछले भाग में अपने अभिनय से जो उम्मीदें जगाई थीं, यहाँ वो धुंधली पड़ जाती हैं। स्क्रिप्ट उन्हें कुछ खास करने ही नहीं देती। सोहा अली खान, एक भूत का किरदार निभाते हुए भी डराने में असफल रहती हैं – शायद इसलिए क्योंकि डर खुद स्क्रिप्ट से नदारद है। गशमीर महाजनी और अन्य कलाकार भी केवल कहानी को खींचने के लिए उपस्थित लगते हैं।

निर्देशन: डरावनी फिल्म की सबसे डरावनी बात – इसका निर्देशन

विशाल फुरिया ने पहली ‘छोरी’ में एक अच्छी कहानी को भयानक माहौल में पिरोया था। लेकिन इस बार, वही गन्ने का खेत, वही हवेली, और वही चीखें – सबकुछ दोहराया गया है, बस प्रभाव गायब है। डरावनी फिल्म तब और भी भयानक हो जाती है जब उसमें डर ही न हो! यह फिल्म दर्शकों की मानसिक परीक्षा बन जाती है।

Chhori 2 Movie Review: प्रतीकवाद या भ्रमजाल?

फिल्म में “पीरियड्स”, “कुर्बानी”, “शक्ति” और “श्राप” जैसे विषयों को इतनी प्रतीकात्मकता में लपेट दिया गया है कि अंत में कुछ भी स्पष्ट नहीं रहता। एक बच्ची का खून किसी राजा की बीमारी का इलाज कैसे बन गया – यह जानने के लिए न तो विज्ञान चाहिए, न तर्क, बस बहुत सारा धैर्य और जादुई सोच चाहिए।

छोरी 2 की सबसे बड़ी सीख?

“छोरियाँ छोरों से कम हैं” का उल्टा बयान देने के चक्कर में फिल्म ये सिखा जाती है कि – मर्दों से लड़ने के लिए औरत को मरना पड़ता है! और तब वह “चुड़ैल” बनकर लड़ सकती है। क्या यही है नारी शक्ति का संदेश? क्या जीवित महिला की कोई ताकत नहीं? शायद निर्देशक को यह याद दिलाना पड़े कि स्त्री की ताकत उसकी सोच में होती है, न कि उसकी मौत में।

अंतिम विचार: अगर ‘छोरी’ देखी है, तो ‘छोरी 2’ मत देखिए

‘छोरी 2’ एक जबरदस्ती का सीक्वल है जो न डराता है, न भावुक करता है, न मनोरंजन देता है। अगर आप सोच रहे हैं कि ‘स्त्री 2’ जैसा मजा मिलेगा, तो भूल जाइए। यहाँ न कहानी है, न क्लाइमेक्स, और न ही कोई ठोस संदेश। बस गन्ने के खेत, एक भ्रमित स्क्रिप्ट और कुछ बेमतलब के प्रतीक।

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रेटिंग: ★☆☆☆☆ (1/5)
केवल उनके लिए जो भूतिया फिल्मों में भी फेलियर ढूंढना चाहते हैं।

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